अध्याय ३ श्लोक ३८-३९ इच्छा एवं ज्ञान

Chapter 3: Verse 38-39

Subject: Desire and Wisdom

विषय: इच्छा एवं ज्ञान

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३-३८॥

 
As fire is covered by smoke and a mirror by dirt; as the foetus is enveloped by the amnion, so is this (wisdom) obscured (covered) by that (desire).

जिस प्रकार धुएं से अग्नि और मैल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढंका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है। ॥३८॥

Lesson: With the rise of desire one’s wisdom (discriminative power) becomes inactive.

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३-३९॥
 
O Kaunteya, the wisdom of the wise is also covered (enveloped) by this constant enemy in the form of desire which is insatiable, like fire.

और हे अर्जुन (कौन्तेय)! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढंका हुआ है। ॥३९॥

Lesson: Desire makes a wise man insatiable/unsatisfied by influencing his discriminating capacity.

अध्याय ३: श्लोक ३६-३७ पाप का स्रोत

Chapter 3 Verse: 36-37

अर्जुन उवाच
Arjuna said

Subject: Source of Sin

विषय: पाप का स्रोत

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३६॥

But, what impels a man, O Varshneya, to commit sin, even reluctantly, as if being compelled to do per force.
Lesson: Try to know what impels a man to commit a sin when he is engaged in action, doing work according to his constituent qualities (temperament)

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। ॥३६॥

श्रीभगवानुवाच।
Lord Krishna said:

Subject: Role of Desire and Anger

विषय: आकांक्षा (इच्छा) और क्रोध का योगदान

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३७॥

 
This desire, this anger; born of rajas (passion, one of the constituent qualities) is a great devourer, a great sinner. This alone be known as the enemy here (in this world).

Lesson: Desire and anger are the source of sin. These should be considered as the greatest enemies.

श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बडा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान। ॥३७॥

अध्याय ३: श्लोक ३४-३५ राग, द्वेष और कर्त्तव्य

Chapter 3: Verse 34-35

Subject: Attachment and Aversion

विषय: राग और द्वेष


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३-३४॥


Attachments and aversions for sense-objects dwell in the senses. None should come under their sway for these are two major stumbling blocks on the path of Self-realization.

Lesson: Perform your duty without being influenced by attachments and aversions for sense-objects which create obstacles in the process of Self-realization.

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं। ॥३४॥

Subject: Obligatory Work (Duty)

विषय: कर्त्तव्य

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३-३५॥

It is better to perform ones own duty. Own duty (svadharmah), how- so- ever deficiently performed, is superior to the well-accomplished duty of some one else   (prescribed for some one else). Better is death in   one’s own duty, as there always remains fear while performing the duty of some one else.


Lesson: For liberation from fear, perform your own obligatory duty rather than attending to the jobs prescribed for some one else.

अच्छी तरह से आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। ॥३५॥

अध्याय ३: श्लोक ३२-३३ स्वभाव-प्रकृति एवं कर्म

Chapter 3: Verse 32-33

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३-३२॥


You consider all these foolish persons as doomed who are deluded about all sort of knowledge (rituals, outward practices or worldly knowledge).Carp at My this thought (teaching) and do not practice it (desire less actions).

Lesson: Doomed are those who do not practice desire less actions.

परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ। ॥३२॥

Subject: Temperament and Action

विषय: स्वभाव-प्रकृति एवं कर्म

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३-३३॥

 
While performing action, all creatures follow their nature/temperament (nature acquired from constituent qualities). The wise also act in accordance with their nature (although they are beyond hate and aversion). What repression / repressions and restraints can do?

Lesson: People act according to their nature (Constituent qualities).None can change its course. Even repressions and restraints fail to help.

सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। ॥३३॥

अध्याय ३: श्लोक ३०-३१ निष्काम कर्म

Chapter 3: Verse 30-31

विषय: निष्काम कर्म

Subject: Desire-less Action


मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३-३०॥


Dedicating all actions to Me, with the mind intent on the Self; devoid of hope (desire of future results), attachment (remembering ego-centric past actions) and anxiety (of unfavorable results) you fight.
Lesson: Fight against your present situations without carrying your past and future with no egoistic sense of doer ship, attachment and anxiety.

मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युध्द कर। ॥३०॥

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३-३१॥


Those who persistently practice My this teaching with full faith and without caviling, they are also liberated from actions (bondage of action).
Lesson: Perform desire less action, with full faith (intellectual conviction), for getting liberation from the bondage of actions.

जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रध्दायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। ॥३१॥

अध्याय ३: श्लोक २८-२९ सर्वज्ञानी व्यक्ति के कर्त्तव्य

Chapter 3: verse 28-29

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥२८॥

 
But, O mighty-armed, he who knows the real nature of the constituent qualities (gunas) and their functions, understands that qualities move amidst qualities. Therefore, he does not get attached to (fruits of) action.

The sense-organs and sense-objects act and react in accordance with one’s constituent qualities. These are just instruments, having no independent identity.

Lesson: The wise remain unattached to actions, as these are accomplished as per one's own constituent qualities.

परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पांच महाभूत और मन, बुध्दि, अहंकार तथा पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और शब्दादि पांच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्मविभाग है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग और 'कर्म विभाग से आत्मा को पृथक अर्थात् निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥२८॥

विषय: सर्वज्ञानी व्यक्ति के कर्त्तव्य

Subject: Duties of a Man-of-Perfect-Knowledge


प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥२९॥
 
The unwise who are deluded by action and the constituent qualities become attached to these qualities (as they do not fully understand the secret (nature) of the constituent qualities and their functions. The wise-man-of-perfect-knowledge should not divert the mind of such ignorant from action whose knowledge is imperfect.

Though they are attached to action, at least they are discharging their duties. If their mind is diverted, they would become idle/indolent or without action.

Lesson: Man of perfect knowledge does not interfere in the lives of those engaged in discharging their duties, whether fruitful or non-fruitful.

प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुध्दि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे। ॥२९॥

अध्याय ३: श्लोक २६-२७ - कर्म और आधारभूत गुण

Chapter 3: Verse 26-27

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३-२६॥


The wise should not confuse the mind of ignorant who are attached to fruits of action. He should engage them in all actions while performing his (own) duties well (inspire others by performing his own duties efficiently without attachment).

Lesson: A role model does not divert the mind of his followers from their devotion to action. Through his own examples of good accomplishments he however, guides them to act likewise.

परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों बुध्दि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रध्दा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए। ॥२६॥

Subject: Actions and Constituent Qualities

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥२७॥


All actions are performed by (one’s) constituent qualities. Yet, the deluded (ego-centric) person thinks, “I am the doer”.

Lesson: Actions be deemed as born of nature and temperamental. The performer is just an instrument, not a doer. Having liberated from the ego of doing action, perform your duty with ease.

वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्त:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूं ऐसा मानता है। ॥२७॥

अध्याय ३: श्लोक २४-२५ : आसक्त एवं अनासक्त कर्म।

Chapter 3: Verse 24-25

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३-२४॥
 

If I cease to act, these worlds would be ruined and I shall be (considered) the cause (agent) of people?s destruction as an admixture of races (one who has intermingled races).


Lesson: The role models have to perform action for developing healthy common practices and protecting public interest.

इसलिए यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाए और मैं संकरताका करने वाला होऊं तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूं। ॥२४॥

Subject: Attached and Unattached Action

विषय: आसक्त एवं अनासक्त कर्म


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३-२५॥


As the ignorant act with attachment to work, O Bharata, so should the wise perform action without attachment being desirous of preventing people from going astray.


Lesson: Perform action in the larger interest of the people/society, with no attachment.

हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। ॥२५॥

अध्याय ३: श्लोक २२-२३

Chapter 3: Verse 22-23

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३-२२॥

In all the three worlds, there is no action (duty) ordained for me; nor there is any thing which remains unattained for Me (that I do not have).Still, O Partha, I am ever engaged in action.


Lesson: Even the best of the role models perform action.

हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूं। ॥२२॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३-२३॥

 
If I do not engage in action vigilantly, O Partha, in all probability, others would start following My path (follow My behaviour of not doing work).

 

क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बडी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। ॥२३॥

अध्याय ३: श्लोक २०-२१

Chapter 3: Verse 20-21

Subject: People’s Welfare

विषय: जन कल्याण


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३-२०॥

 
King Janaka and many others (who were not expected to work performed action for the welfare of the people) attained Perfection by performing action. Therefore, for the sake of people?s welfare you too should perform your duty.


Lesson: Perform your duty to guide people and for the larger welfare of the society.

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है। ॥२०॥

Subject: Role Models

विषय: आदर्श पुरुष


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३-२१॥

 
What ever a noble person does, others also follow (also behave like that). What ever standards he (the noble person) establishes, the society follows.
Lesson: The society follows its role models.

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहां क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।) ॥२१॥

अध्याय ३: श्लोक १८-१९ । अनासक्त कर्म

Chapter 3: Verse 18-19

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३-१८॥

 
Such a person (the Self-contented) has no interest what- so- ever in what has been done and what is to be done. Nor he depends in this world on any body for any of his motives/interest.


Lesson: Attainment of Self-contentment and satisfaction is the ultimate purpose of karma (action). A self-contented person is always free from the concerns of action. He does not depend on any body for any of his motive/interest.

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचितमात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। ॥१८॥

Subject: Action without Attachment

विषय: अनासक्त कर्म


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३-१९॥

Therefore, ceaselessly perform your duty efficiently without being attached. Only the unattached one, while performing his duty does attain the Supreme.


Lesson: The supreme goal is attainable through action having no attachment.

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्त्तव्यकर्म को भलीभांति करता रह, क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। ॥१९॥

अध्याय ३: श्लोक १६-१७ । सहयोगी कृत्य एवं कर्म का उद्देश्य

Chapter 3: Verse 16-17

Subject: Cooperative-Action

विषय: सहयोगी कृत्य


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३-१६॥
 
He who does not keep in motion with this cosmic-wheel (of cooperative action) and who rejoices only in the sense-objects, that sinful, O Partha, lives in vain in this world.
Lesson: His life is worthless who simply rejoices in the sense-objects and fails to follow the cosmic cycle of cooperative-action.

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। ॥१६॥

Subject: Ultimate Purpose of Karma

विषय: कर्म का एक मात्र उद्देश्य


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-१७॥

 
For him there remains no action (no worldly or obligatory duty/action) who rejoices only in the Self and who drives satisfaction and contentment in the Self alone.

(ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता)

परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। ॥१७॥

अध्याय ३: श्लोक १४-१५। यज्ञ एवं नक्षत्र चक्र

Chapter 3: Verse 14-15

Subject: Yajna and Cosmic Cycle

विषय: यज्ञ एवं नक्षत्र चक्र

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥३-१४॥

 

All beings are born of food (all living beings depend on food); from rain food is produced; rain comes from sacrifice; and sacrifice is born of action.

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है ॥१४॥


कर्म ब्रह्मोद्भवं विध्दि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३-१५॥

 

Know that action originates from Brahma (scriptures) and Brahma from the Imperishable. Thus the all pervading Brahman (Devine knowledge) is ever established in sacrifice (action/service with a sense of sacrifice).

Lesson: Cosmic-cycle revolves with cooperative-action where- in all forces, which are interdependent, sacrifice for each other.

कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षरं परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥१५॥

अध्याय ३: श्लोक १३। समपत्ति का सदुपयोग

Chapter 3: Verse 13

Subject: Use of Wealth

विषय: समपत्ति (धन) का सदुपयोग


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३-१३॥


The righteous who use the residue of yajana (the sacrifice) are liberated from all sins; but the sinful who prepare food (only) for themselves, without sharing with others, verily eat sin.

Lesson: While consuming wealth (material things) share it with others. Do not hoard it.

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। ॥१३॥

अध्याय ३: श्लोक ११-१२।

Chapter 3:Verse 11-12

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३-११॥


By this (yajana) you may nourish the gods, and let the gods nourish you. Thus, nourishing one another (performing duty for each other or serving each other) you shall attain to the highest good.

Lesson: Performing action as yajna brings prosperity for all. It is like serving the Supreme alone.

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। ॥११॥


इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३-१२॥


The gods nourished by the sacrifices shall give you (in return) all the desired objects. He who enjoys these objects, given by the gods, without giving anything to them (in return) is indeed a thief.


Lesson: Do not enjoy the benefits (fruits) of actions performed by others without contributing your own share.

यज्ञ द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। ॥१२॥

अध्याय ३: श्लोक ९-१०। कर्म और यज्ञ (बलिदान)

Chapter 3: Verse 9-10

Subject: Action and Yajna (Sacrifice)

विषय: कर्म और यज्ञ (बलिदान)

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३-९॥

But for action performed as a sacrifice, this world is in bondage to action. Therefore, O Son of Kunti, perform your duty as a sacrifice, free from all attachments.


Lesson: Perform your duty with excellence as if you are performing yjana (sacrifice) without any attachment (desire or longing for results).

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्तव्य कर्म कर। ॥९॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३-१०॥

In the beginning having created the beings together with yajana (the sacrifices=serving for each other), Prajapati (the Creator) said, “By this (yajna) you prosper (multiply by performing sacrificial duty). May this fulfill all your desires”.


Lesson: Perform action in the spirit of Yajna (sacrificial duty) to help each other.

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृध्दि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो। ॥१०॥

अध्याय ३: श्लोक ७-८। श्रेष्ठ पुरुष

Chapter 3: Verse 7-8

Subject: One Who Excels

विषय: श्रेष्ठ पुरुष

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३-७॥

But, the unattached one, who keeps the sense-organs within the control of his mind, engages his motor-organs in the path of action (karma yoga), O Arjuna, he alone excels.


Lesson: Having controlled the sense-organs by your mind, perform action without attachment to results.

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है। ॥७॥

Subject: Obligatory Action

विषय: कर्त्तव्य

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३-८॥

 
Perform your obligations (obligatory duties) because action is superior to inaction. Even the maintenance of your (physical) body would not be possible without action.

Lesson: Action is essential. It is superior to inaction. Even to maintain his physical body, one has to perform some sort of action.

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिध्द होगा। ॥८॥

अध्याय ३ श्लोक ५-६। गर्व-दम्भ

Chapter 3: Verse 5-6

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३-५॥

 
Because, even for a moment, none remains without performing action. Indeed, all are made to work helplessly by the qualities born of nature.

नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा पर वश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। ॥५॥

Subject: The Hypocrite

विषय: दम्भी-घमन्डी

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३-६॥

 

One who forcefully restraints the organs-of-action, but whose mind continues to brood over the sense-objects, is of deluded mind; and he is called a hypocrite.

Lesson: His mind is deluded and he is a hypocrite who is attached to sense-objects, having forcefully controlled organs-of-action.

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है। ॥६॥

अध्याय ३: श्लोक ३-४; कर्म अपरिहार्य है।

Chapter 3: Verse 3-4

श्रीभगवानुवाच।
 Lord Krishna said:

Subject: The Two-fold Path

विषय: द्विस्तरीय मार्ग 


लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३-३॥

 
O Sinless One, as I have already told you earlier, there is a two-fold path; the path of knowledge for the samkhyas (the men of realization) and the path of action for the yogis (the men of action).

Lesson: Knowledge and action are complementary to each other. Steadfastness in knowledge is suitable for being practiced through a process of action (karma yoga).

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग है, इसी को 'संन्यास, 'सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुध्दि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग है, इसी को 'समत्वयोग, 'बुध्दियोग, 'कर्मयोग, 'तदर्थकर्म, 'मदर्थकर्म, 'मत्कर्म आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥३॥

Subject: Action is Unavoidable

विषय: कर्म अपरिहार्य है।


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३-४॥

One does not become Action- less (free from the bondage of action) merely by absconding from action. Also, none attains` Perfection` by renunciations of action.

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। ॥४॥

तृतीय अध्याय: कर्म योग- श्लोक १-२

Third Chapter: 'Eternal duties of human beings' Verse 1-2

ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण

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अर्जुन उवाच।
Arjuna said:

Subject: Confusion and Curiosity

विषय: भ्रम एवं जिज्ञासा

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३-१॥
 
O Janardana, if the path of steady intellect (transcendental wisdom) is superior to (desire less) action, why then O Kesava, you urge me to engage in this horrible action (war).

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ॥१॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३-२॥
 
Your equivocal words appear to confuse me. Tell me decisively, the one by which I may attain the highest good (the Supreme)
Lesson: Delusion creates confusion and a confused person fails to distinguish between right or wrong. Also, he is ever curious to know about the reality (the truth).

आप अपने इस प्रकार के वचनों से मेरी बुध्दि को सम्मोहित सा कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ॥२॥

अध्याय २: श्लोक ७२ । ब्रह्म ज्ञान

Chapter 2: Verse 72

Subject: Knowledge of Absolute

विषय: परम ज्ञान


एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२-७२॥
 
O Partha! this is the state of being established in Brahman (when one has realized the Supreme).On attaining this state none is deluded. If he continues to live in this state till his last breath, he attains oneness with the Absolute.

Lesson: Knowing the Absolute is the real knowledge.

हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। ॥७२॥

 

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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्याय: ॥२॥

Here ends the second chapter of Bhagvadgita named Sankhya Yoga i.e. The Eternal Reality of Souls's Immortality

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रह्मविद्या-योगशास्त्र सम्बन्धित श्रीकृष्ण अर्जुन संवादयुक्त साङ्ख्य योग नामक द्वितीय अध्याय समाप्त होता है।

अध्याय २: श्लोक ७०-७१ । वास्तविक शान्ति

Chapter 2: Verse 70-71

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२-७०॥

That person of steady intellect remains stable and passionless when desires enter in to his mind as the water of countless rivers flows into the brimmed ocean without causing it any vacillation. And this great person attains highest peace; not the one that has desires to fulfill desires.

Lesson: The man of steady intellect, who remains unaffected by desires, attains highest peace.

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में उसको विचलितन करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसीप्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं। ॥७०॥

Subject: Real Peace

विषय: वास्तविक शान्ति

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥२-७१॥

 
One who abandons all desires and who is devoid of longing, ego and a desire attains peace.

Lesson: Renunciation of ego-centric misconception leads to real peace.

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है। ॥७१॥

अध्याय २: श्लोक ६८-६९। स्थिर चित्त एवं स्थित प्रज्ञ योगी

Chapter 2: Verse 68-69

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-६८॥

 
Therefore, O mighty armed (Arjuna) steady is the intellect of a person whose sense-organs, being withdrawn from their respective sense-object, are completely under complete control.
Lesson: It is essential for a steady intellect to exercise control on sense-organs, having withdrawn from their respective object.

इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुध्दि स्थिर है। ॥६८॥

Subject: Metaphysician

विषय: स्थितप्रज्ञ योगी

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२-६९॥
 
This Self-controlled  person , who has realized the everlasting pure element of Self, keeps awake when it is night for other beings. When other persons remain wakeful for transient and perishable worldly pleasures, this sage has night to perceive the eternal truth (the Reality).

Lesson: One who is deep rooted in the material world is ignorant to the world of perception intensely enjoyed and lived by a metaphysician of steady intellect.

सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जाननेवाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। ॥६९॥

अध्याय २: श्लोक ६६-६७ । प्रसन्न पुरुष एवं इन्द्रिय नियन्त्रण

Chapter 2: Verse 66-67

Subject: Contented Person

विषय: प्रसन्न पुरुष

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥२-६६।
 
He neither has good intellect nor any sense of theism who does not contemplate with the Supreme. Such a man of atheistic nature does not have peace. How can there be peace to the peace less?
Lesson: By contemplating with the Supreme with a sense of theism, one can attain inner tranquility and contentment.

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुध्दि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ॥६६॥

Subject: Unbridled Sense –Organs

विषय: अनियन्त्रित इन्द्रियाँ

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥२-६७॥
 
As a boat floating on the water is carried away by stormy wind, the mind of a person (not contemplated with the Supreme) is taken away by a single sense –organ( to which he is deeply attached) from amongst the wavering and undisciplined sense-organs.
Lesson: It is not good to leave the sense-organs unrestrained for a purposeful life and enduring success.

क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुध्दि को हर लेती है। ॥६७॥

अध्याय २: श्लोक ६४-६५।अन्त:करण की प्रसन्नता

Chapter 2: Verse 64-65

Subject: inner tranquility

विषय: अन्त:करण की प्रसन्नता


रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥२-६४॥


प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥२-६५॥
 

But, he attains inner tranquility, even if he enjoys sensory pleasures, whose heart is independent; who neither has any attraction nor aversion; and whose sense-objects are under complete control.  All his sorrows are destroyed in that tranquility and the intellect of such a tranquil-minded person soon becomes completely steady.


Lesson: A person may have steady intellect and inner tranquility even if he enjoys sensory pleasures provided his sense objects are under complete control and whose heart is independent.

परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। ॥६४॥

अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुध्दि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है। ॥६५॥

अध्याय २: श्लोक ६३। क्रोध

Chapter 2: Verse 63

Subject: Anger

विषय: क्रोध

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२-६३॥

 
From anger arises ignorance, from ignorance there is delusion and loss of memory .These together destroy intellect. With the destruction of intellect, the person is totally degraded.

Lesson: Attachment to sensory –objects creates a cycle of evil passions which results in the degradation of ones personality. The person loses his goal and he deviates from his chosen path.

क्रोध से अत्यन्त मूढ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुध्दि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुध्दि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। ॥६३॥

अध्याय २: श्लोक ६१-६२। स्थिर चित्त एवं आसक्ति

Chapter 2: Verse 61-62

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-६१॥

 
His intellect is steady who while controlling them all (sense-organs) remains concentrated on Me as the Supreme by completely  overcoming his senses.
Lesson: One who concentrates on the Supreme, having controlled his senses, have  steady intellect.

इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं, उसी की बुध्दि स्थिर हो जाती है॥६१॥

Subject: Affect of Sensory Attachment

विषय: आसक्ति के प्रभाव

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२-६२॥
 
One who dwells on sense- objects, gets attached to sensory attachment. From attachment, desires are born and anger arises when there are impediments in the fulfillment of desires.

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पन्न होता है। ॥६२॥

अध्याय २: श्लोक ५९-६० परम की अनुभूति एवं इन्द्रियों की आसक्ति।

Chapter 2: Verse 59-60

Subject: Realisation of the Absolute

विषय: परम की अनुभूति

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२-५९॥

 
One who abstains from the attachment of senses
may be detached from sensual pleasures but his carving for sensual enjoyment remains alive. It is only on the realization of the Supreme Being (the Absolute) that his longing leaves him.

Lesson: Only on realization of the Supreme Reality (The Absolute) one is detached from carving for sensual pleasures.

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। ॥५९॥

Subject: Turbulent Senses

विषय: आसक्त इन्द्रियाँ

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२-६०॥

 
The turbulent senses, O Kauntya (Son of Kunti) do violently carry away the mind of a wise person even while he is striving (to control them).

Lesson: It is not easy to detach ones mind from turbulent sense-organs and their objects. Even the mind of wise persons is taken away violently by sensual pleasures /attractions.

हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां यन्त्र करते हुए बुध्दिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं। ॥६०॥

अध्याय २: श्लोक ५७-५८ । श्रीभगवानुवाच

Chapter 2: Verse 57-58

श्रीभगवानुवाच।

Lord Krishna said:

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-५७॥

 
A person of steady intellect is he who is unattached every where and who neither rejoices nor hates on getting anything good or bad when he comes across it.

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ वह उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुध्दि स्थिर है। ॥५७॥


यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेऽभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-५८॥

 
His intellect is stabilized when he completely withdraws his senses from the sense-objects like a tortoise who withdraws its limbs from all sides.


Lesson: He is as a man of steady intellect whose intellect is not contaminated due to endless desires; who is self contented in the Self; totally liberated from attachment of gains or losses and whose senses are completely withdrawn from the sense-objects.

और जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुध्दि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)। ॥५८॥

अध्याय २: श्लोक ५५-५६। स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण

Chapter 2: Verse 55-56

श्रीभगवानुवाच।
Lord Krishna said:

Subject: Characteristics of the Steady Intellect

विषय: स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महत्ता


प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२-५५॥

O Partha, a person is said to be of steady intellect who has completely abandoned all the desires of the mind and who remains satisfied in the Self alone by the Self.

श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। ॥५५॥


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२-५६॥


He is called an enlightened sage of steady intellect who remains unperplexed in the moments of sorrow, who does not crave for any desire while in comfort and who is completely liberated from attachment, fear and anger.

 

दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुध्दि कहा जाता है। ॥५६॥

अध्याय २: श्लोक ५३-५४ । आत्मानुभूति एवं जिज्ञासा

Chapter 2: Verse 53-54

Subject: Self-realization

विषय: आत्मानुभूति

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२-५३॥


You shall attain self-realisation when your intellect which is wavering due to different doctrines and principles that you have heard ,shall stand  stabilized and steady in the Self.
Lesson: Self-realisation is attained on having the intellect steadily stabilized in the Self.

भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुध्दि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा। ॥५३॥

 

Subject: Curiosity

विषय: जिज्ञासा

Arjuna said:

अर्जुन उवाच।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२-५४॥


O Keshava, what are the characteristics of a person of steady intellect who is Self-absorbed? How does the person of steady intellect speak; how does he sit; and how does he walk (behave)?
Lesson: Curiosity rises in the pursuit of knowledge.

( स्थिरबुध्दि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

अर्जुन उवाच:

अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुध्दि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुध्दि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥

अध्याय २: श्लोक ५१-५२। वैराग्य

Chapter 2: Verse 51-52

Subject: Detachment

विषय: वैराग्य

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२-५१॥

Endowed with evenness of mind the wise, having renounced the fruits of actions, is librated from the bondage of birth. He (thus) attains the Supreme position (state of enlightenment) which is beyond all evils.
Lesson: Abandon the fruits of your action to get liberation from the bondage of birth and attain the evil less supreme position.

क्योंकि समबुध्दि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं। ॥५१॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२-५२॥


When your intellect crosses the swamp of delusion, you become indifferent as to what has been heard and what is yet to be heard.
Lesson: Detachment from the material world (world of senses) is experienced when ones intellect sheds off his delusions.

जिस काल में तेरी बुध्दि मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा। ॥५२॥

अध्याय २: श्लोक ५०

Chapter 2: Verse 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२-५०॥

A person with evenness of mind is not attached to the fruits of good or bad deeds. He casts off the virtue and sin in this world alone. Therefore, devote yourself to (karma) yoga (with evenness of mind/equanimity). Performing duty with efficiency is yoga.
Lesson: By performing duty with evenness of mind a person accomplishes his job with greater efficiency and skill.

समबुध्दियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है। ॥५०॥

अध्याय २: श्लोक ४८-४९ 'योग'

Chapter 2: Verse 48-49

Subject: Yoga

विषय: योग

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२-४८॥


Leaving the attachment of success and failure, O Dhananjaya, be established in yoga. Equipoise in yoga (yoga of evenness/equanimity of mind) perform your duty. This evenness of mind is known as yoga. (Viewing gain and loss, victory and defeat in equanimity is known as evenness of mind).

Lesson: Persons established in yoga view gain and loss, victory and defeat with evenness of mind (In equanimity).

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिध्दि और असिध्दि में समान बुध्दिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व है।) ही योग कहलाता है। ॥४८॥

Subject: Importance of the Evenness of Mind

विषय: समत्व रूप बुद्धि का महत्त्व

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२-४९॥


Action (work done with motives/desires for fruits-of) indeed is inferior to yoga of wisdom (evenness of mind). Miserable are those who desire fruits for their action. Therefore, O Dhananjaya, seek your refuge in the yoga of equanimity with devotion.
Lesson: Action performed with evenness of mind is better than desire- full- action.

इस समत्वरूप बुध्दियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुध्दि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुध्दियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं। ॥४९॥

अध्याय २: श्लोक ४६-४७। कर्मण्येवाधिकारस्ते

Chapter 2: Verse 46-47

Subject: Man of Absolute Knowledge

विषय: ज्ञान की ओर

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२-४६॥


The man of absolute knowledge who has realized the Supreme Self (the Brahman) successfully achieves the entire purpose of life which is described in the Vedas (scriptures). He does not need any thing more, as petty wells are not required when big reservoirs are found.
Lesson: The man of absolute knowledge is not influenced by the ostentatious knowledge (rituals or outward practices) described in Vedas (scriptures).

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ॥४६॥

Subject: Right to Perform Duty

विषय: कर्म का ही अधिकार

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२-४७॥


Your right is only to perform your duty, but never to its results (fruits). Let not the results be your motive, nor you be indolent.
Lesson: Perform your duty with a mind free from the anxieties of fruits of action. Neither you be indolent nor consider yourself as the cause ( agent) of results.

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। ॥४७॥

अध्याय २: श्लोक ४४-४५। अस्थिर मन और मूलभूत गुण

Chapter 2: Verse 44-45

 

Subject: Instable Mind

विषय: अस्थिर चित्त


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२-४४॥


Those persons are devoid of stable intellect and firm determination (single-pointed conviction) who are more attached to carnal pleasures and worldly prosperity and who remain obsessed by such things.


Lesson: Persons attached to carnal pleasures and who remain obsessed by worldly things have instable mind.

उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुध्दि नहीं होती। ॥४४॥

 

Subject: Constituent Qualities

विषय: मौलिक गुण


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२-४५॥


The Vedas (scriptures) deal with three constituent qualities (natural attributes like Sat, Raj, Tama found in all substances). Rise above these three qualities O Arjuna, be free from the conflict (duality) of pleasures and pains, gains and protection; ever poised in the quality of Sattva without (any desire for) acquisition and preservation (yogakshema) and be possessed of the Self.

Lesson: Three constituent qualities are found in all substances (satva, rajas, tamas). Possessed of the Self, one should ever be poised in the quality of sattva (purity) without any desire of acquisition, accumulation and preservation/protection of worldly possessions.

हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग है।) क्षेम को (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम है।) न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो। ॥४५॥

  चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अध्याय २: श्लोक ४२-४३। अविवेकी (मूर्ख)

Chapter 2 Verse: 42-43

Subject: The Unwise

विषय: अविवेकी (मूर्ख)


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२-४२॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२-४३॥

Only those unwise people are attached to the ostentatious knowledge of Vedas (scriptures) which promise heaven and good rebirth, as the reward of their actions. For the satisfaction of their sense-organs and with the desire to lead a life of material grandeur, they think that the best is heaven and nothing is better than it. Quoting instances from scriptures with their own ostentatious meaning, only the unwise plead for desire full action.

हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुध्दि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढकर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिसपुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ॥४२-४३॥

अध्याय २: श्लोक ४१। निष्काम कर्म फल

Chapter 2: Verse 41

Subject: Desire less Action Affects

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥२-४१॥

O Kurunandana (son of Kuru dynasty), those who proceed on this path of Nishkam Karma Yoga, have resolute determination (single-pointed conviction or steady intellect), while the mind of those unwise remains fragmented in endless irresolute thoughts whose actions are guided by desires (motives).


Lesson: Desire less action promotes steady intellect and firm determination.

हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुध्दि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुध्दियां निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं। ॥४१॥

शिक्षा: 'निष्काम कर्म', 'स्थिर-बुद्धि' और 'दृढ़-निश्चय' को प्रेरित करता है।

अध्याय २: श्लोक ३९-४०। निष्काम कर्म

Chapter 2: Verse 39-40

Subject: Desire less Action

विषय: निष्काम कर्म

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥२-३९॥

This knowledge I have given to you in the context of samkhya yoga. Now listen to the knowledge related to Nishkam Karma Yoga (Yoga of Desire less Action). Having exposed to this, O Partha, you shall break the bondage-of- action.

Lesson: The desire less action (Nishkam Karma Yoga)   helps in breaking the bondage- of- action.

हे पार्थ! यह बुध्दि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुध्दि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा। ॥३९॥

***

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२-४०॥

Even a little practice of Nishkam Karma Yoga would liberate you from the fear of birth and death. Neither the initiations made in this regard would be lost, nor would you be blamed for any of their counter-affects.

Lesson: Desire less action liberates a person from fear and the stigma if initiation.

इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। ॥४०॥

अध्याय २: श्लोक ३७-३८ । कर्त्तव्य परायणता का वरदान (की उपलब्धि)

Chapter 2: Verse 37-38

Subject: Bliss of Performing Duty

विषय: कर्त्तव्यपरायणता का वरदान

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥२-३७॥


Determined to fight, get up O Kaunteya, if you are slain in the battle you will go to heaven; and if you come out victorious you will enjoy the pleasures of the earth.

Lesson: By performing duty one gets worldly pleasures when alive and the bliss of heaven, if died in the battle (Karma Bhumi).

या तो तू युध्द में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युध्द के लिए निश्चय करके खडा हो जा। ॥३७॥

*****

Subject: Desire less Action

विषय: कर्म बिना फल की आशा के।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२-३८॥


You will incur no sin when you get yourself ready to fight while treating all pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat alike.
Lesson: Perform your duty without motives of pleasure, victory or gain (desire less action).

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युध्द के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युध्द करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। ॥३८॥

अध्याय २: श्लोक ३५-३६ । कर्त्तव्य विमुखता

Chapter 2: Verse 35-36

Subject: Escape from Duty

विषय: कर्त्तव्य विमुखता।


भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥२-३५॥

Those mighty commanders who give you great respect today, when they meet you (on your escape from the battle field), would think of you as worthless and that you have escaped (from duty) out of fear.

Lesson: Escape from duty damages ones public image and his social repute.

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? ॥३५॥

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥२-३६॥

Caviling your capability your enemies will speak many unspeakable words about you. What would be more painful than this?
Lesson: Distressing is disreputation and condemnation caused due to escape from duty.

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ॥३६॥

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अध्याय २: श्लोक ३३-३४। कर्त्तव्य विमुखता

Chapter 2: Verse 33-34

Subject: Escape from Duty

विषय: कर्त्तव्य विमुखता


अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥३३॥

(And) if you will not fight this righteous war (righteous duty), you shall incur sin besides having lost your own Dharma duty) and reputation.


Lesson: Escape from duty leads to bad reputation and sinful life.

किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। ॥३३॥

Subject: Disrepute

विषय: अपकीर्ति / कलंकित करना (होना)


अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥३४॥

 

The people too shall discuss your disgrace for ever. Such a disgrace to the honoured one (a man of respect), is worse than death.


Lesson: Disrepute is worse than death.

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढकर है। ॥३४॥

होम-हवन-यज्ञ: १

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अध्याय २: श्लोक ३१-३२ । योद्धा का कर्तव्य

Chapter 2: Verse 31-32

Subject: A Warrior’s Duty

विषय: योद्धा का कर्तव्य।


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥३१॥

Considering it as your own duty you should not feel frightened. There is nothing better for a Kshatriya (Warrior) than a righteous war.


Lesson: One should not escape from his duty. A warrior’s duty is to fight.

अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युध्द से बढकर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। ॥३१॥

 

Subject: Performing Duty

विषय: कर्तव्य निर्वहन

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥३२॥


O Partha, Only the fortunate get the privilege of such a battle that comes of itself as an open door to heaven.

Lesson: Only fortunate people get the privilege of performing righteous duty.

हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। ॥३२॥

अध्याय २: श्लोक २९-३०। आत्मा की प्रकृति

Chapter 2: Verse 29-30

Subject: Nature of the Soul

विषय: आत्मा की प्रकृति


आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्

आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति

श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२९॥

One perceives the soul as a miracle; and the other hears it as a wonder; and another describes it as a surprise. Yet, having heard about this, none understands what the soul is.

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता। ॥२९॥

Lesson: Perceive the soul as a reality; not as a miracle.

Subject: The Imperishable

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥३०॥

O Bharat, this soul, which dwells in the body of all beings, is such that it can not be slain. Therefore, it does not behove of you to grieve for all the beings.

हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है। ॥३०॥

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युध्द करने की आवश्यकता का निरूपण)

Lesson: The soul is imperishable and eternal; do not grieve for the perishable beings.

अध्याय २: श्लोक २७-२८ । मृत (मृत्यु) पर शोक

Chapter 2: Verse 27-28

Subject: Grieving for the Dead

विषय: मृत का शोक

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥

(Because) death is inevitable for the born and certain is birth for the dead. You can not do anything in this regard. Therefore, it does not behove of you to grieve for this.

Lesson: It is not good to grieve for the dead as death and rebirth are certain for who ever is born.

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है। ॥२७॥

Subject: Law of Causation

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२८॥

O Bharat, prior to birth and after their death, all   beings are unmanifested (do not have body form). Only during the interim period, they seem to be manifested. Then what is there to concern about?

Lesson: Manifested is the perishable body. Its causes are unmanifested. One should not grieve for the perishable.

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?। ॥२८॥

अध्याय २: श्लोक २५-२६। आत्मा की विशेषतायें।

Chapter 2: Verse 25-26

Subject: Characteristics of Soul

विषय: आत्मा की विशेषतायें।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२५॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२६॥


This (the soul) is neither the subject of sense organs nor of mind. This is said to be unchangeable. Therefore, (after) understanding its nature you should not grieve.

(And) even if you consider of it as being perpetually born and dying, O Mighty Armed, you should not grieve like this.

Lesson: The soul is beyond the effects of the five primary elements. Do not grieve for the soul, when it departs from the body, as it is unchangeable and beyond the comprehension of the sense organs and the mind

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और इसको विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। ॥२५॥

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। ॥२६॥

शिक्षा: आत्मा पञ्च-तत्त्वों के प्रभाव से परे है। जब ये शरीर से निकलती है तो इसके लिये शोक न करो ये कभी नही बदलती तथा मस्तिष्क और इन्द्रियों के दायरे मे नही आती।

अध्याय २: श्लोक २३-२४ । आत्मा की विशेषतायें

Chapter 2: Verse 23-24

Subject: Characteristics of the Soul

विषय: आत्मा की विशेषतायें


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२४॥


Neither the weapons can cleave it (the soul), nor can fire burn; water can not drench it, nor can air dry.

This (soul) can not be broken or burnt or dried-up. Soluble indeed, it is everlasting, all pervaiding, and immovable, stable and primeval.

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:संदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अध्याय २: श्लोक २१-२२ । मृत्यु का रहस्य

Chapter 2: Verse 21-22

विषय: मृत्यु का रहस्य

Subject: Mystery of Death

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२१॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही॥२२॥


O Partha, who so ever considers this soul everlasting, eternal, unborn and imperishable, knows who slays whom and (who) causes death to some one.

Just as a man wears new clothes by discarding the worn-out one, similarly the soul gets new bodies after casting away the old one.


Lesson: He who understands the characteristics of the soul knows the mystery of death. The death is like discarding the worn out clothes to get the new one.

हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है? ॥२१॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्तहोता है। ॥२२॥

शिक्षा: जो आत्मा को समझ लेता है वो मृत्यु के रहस्य को जान जाता है, मृत्य, पुराने हो चुके कपड़े को उतार कर नये पहनने जैसी है।

अध्याय २: श्लोक १९-२०

Chapter 2: Verse 19-20

Subject: The Soul

विषय: आत्मा

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥

न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥



One who considers that he is the slayer of this (the Soul), and the other who presumes that it (the Soul) is dead, both are ignorant because none can slay the soul, nor it is slain.

This one (the soul) is neither born, nor does it die at any moment. It does not come into being or cease to exist. It is unborn, eternal, everlasting and primeval. It does not perish when the body is perished.


Lesson: The soul is beyond the limits of time as well as birth and death. It is imperishable. None can slay it, nor is it slain.

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है। ॥१९॥

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। ॥२०॥

अध्याय २: श्लोक १७-१८

Chapter 2: Verse 17-18

अविनाशि तु तद्विध्दि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥१८॥

But know that by whom this total body is pervaded, is indestructible. No one is able to cause the destructions of this imperishable soul [17].

The embodied soul is eternal in existence, indestructible and infinite only the material body is factually perishable, therefore Fight...O Arjun! [18].

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। ॥१७॥

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर। ॥१८॥

अध्याय २: श्लोक १५-१६।

Chapter 2: Verse 15-16.

 

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि: ॥१६॥

 

O Noblest of Men, that person of judgment equipoised in happiness and distress, who can not be disturbed by these; is certainly eligible for liberation.

In the unreal there is no duration and in the real there is no cesation; indeed the conclusion between both of the two has been analyzed by knowers of the truth.

 

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।

असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

अध्याय २:श्लोक १३-१४।

Chapter 2: Verse 13-14.

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा: ।

गमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥

Just as in 'the physical body of the embodied being' is the process of childhood, youth and the old age; similarly, by the transmigration from one body to another; the wise are never deluded.

O Arjuna! only the interaction of senses and sense objects give cold, heat , pleasure and pain. These things are temporary, appearing and disappearing, therefore try to tolerate them.

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।

हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।