अध्याय २: श्लोक ४८-४९ 'योग'

Chapter 2: Verse 48-49

Subject: Yoga

विषय: योग

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२-४८॥


Leaving the attachment of success and failure, O Dhananjaya, be established in yoga. Equipoise in yoga (yoga of evenness/equanimity of mind) perform your duty. This evenness of mind is known as yoga. (Viewing gain and loss, victory and defeat in equanimity is known as evenness of mind).

Lesson: Persons established in yoga view gain and loss, victory and defeat with evenness of mind (In equanimity).

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिध्दि और असिध्दि में समान बुध्दिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व है।) ही योग कहलाता है। ॥४८॥

Subject: Importance of the Evenness of Mind

विषय: समत्व रूप बुद्धि का महत्त्व

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२-४९॥


Action (work done with motives/desires for fruits-of) indeed is inferior to yoga of wisdom (evenness of mind). Miserable are those who desire fruits for their action. Therefore, O Dhananjaya, seek your refuge in the yoga of equanimity with devotion.
Lesson: Action performed with evenness of mind is better than desire- full- action.

इस समत्वरूप बुध्दियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुध्दि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुध्दियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं। ॥४९॥

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