अध्याय ३: श्लोक २४-२५ : आसक्त एवं अनासक्त कर्म।

Chapter 3: Verse 24-25

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३-२४॥
 

If I cease to act, these worlds would be ruined and I shall be (considered) the cause (agent) of people?s destruction as an admixture of races (one who has intermingled races).


Lesson: The role models have to perform action for developing healthy common practices and protecting public interest.

इसलिए यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाए और मैं संकरताका करने वाला होऊं तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूं। ॥२४॥

Subject: Attached and Unattached Action

विषय: आसक्त एवं अनासक्त कर्म


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३-२५॥


As the ignorant act with attachment to work, O Bharata, so should the wise perform action without attachment being desirous of preventing people from going astray.


Lesson: Perform action in the larger interest of the people/society, with no attachment.

हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे। ॥२५॥

अध्याय ३: श्लोक २२-२३

Chapter 3: Verse 22-23

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३-२२॥

In all the three worlds, there is no action (duty) ordained for me; nor there is any thing which remains unattained for Me (that I do not have).Still, O Partha, I am ever engaged in action.


Lesson: Even the best of the role models perform action.

हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूं। ॥२२॥

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३-२३॥

 
If I do not engage in action vigilantly, O Partha, in all probability, others would start following My path (follow My behaviour of not doing work).

 

क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बडी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। ॥२३॥

अध्याय ३: श्लोक २०-२१

Chapter 3: Verse 20-21

Subject: People’s Welfare

विषय: जन कल्याण


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३-२०॥

 
King Janaka and many others (who were not expected to work performed action for the welfare of the people) attained Perfection by performing action. Therefore, for the sake of people?s welfare you too should perform your duty.


Lesson: Perform your duty to guide people and for the larger welfare of the society.

जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है। ॥२०॥

Subject: Role Models

विषय: आदर्श पुरुष


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३-२१॥

 
What ever a noble person does, others also follow (also behave like that). What ever standards he (the noble person) establishes, the society follows.
Lesson: The society follows its role models.

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहां क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।) ॥२१॥

अध्याय ३: श्लोक १८-१९ । अनासक्त कर्म

Chapter 3: Verse 18-19

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३-१८॥

 
Such a person (the Self-contented) has no interest what- so- ever in what has been done and what is to be done. Nor he depends in this world on any body for any of his motives/interest.


Lesson: Attainment of Self-contentment and satisfaction is the ultimate purpose of karma (action). A self-contented person is always free from the concerns of action. He does not depend on any body for any of his motive/interest.

उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचितमात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। ॥१८॥

Subject: Action without Attachment

विषय: अनासक्त कर्म


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३-१९॥

Therefore, ceaselessly perform your duty efficiently without being attached. Only the unattached one, while performing his duty does attain the Supreme.


Lesson: The supreme goal is attainable through action having no attachment.

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्त्तव्यकर्म को भलीभांति करता रह, क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। ॥१९॥

अध्याय ३: श्लोक १६-१७ । सहयोगी कृत्य एवं कर्म का उद्देश्य

Chapter 3: Verse 16-17

Subject: Cooperative-Action

विषय: सहयोगी कृत्य


एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३-१६॥
 
He who does not keep in motion with this cosmic-wheel (of cooperative action) and who rejoices only in the sense-objects, that sinful, O Partha, lives in vain in this world.
Lesson: His life is worthless who simply rejoices in the sense-objects and fails to follow the cosmic cycle of cooperative-action.

हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। ॥१६॥

Subject: Ultimate Purpose of Karma

विषय: कर्म का एक मात्र उद्देश्य


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-१७॥

 
For him there remains no action (no worldly or obligatory duty/action) who rejoices only in the Self and who drives satisfaction and contentment in the Self alone.

(ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता)

परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। ॥१७॥

अध्याय ३: श्लोक १४-१५। यज्ञ एवं नक्षत्र चक्र

Chapter 3: Verse 14-15

Subject: Yajna and Cosmic Cycle

विषय: यज्ञ एवं नक्षत्र चक्र

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥३-१४॥

 

All beings are born of food (all living beings depend on food); from rain food is produced; rain comes from sacrifice; and sacrifice is born of action.

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है ॥१४॥


कर्म ब्रह्मोद्भवं विध्दि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥३-१५॥

 

Know that action originates from Brahma (scriptures) and Brahma from the Imperishable. Thus the all pervading Brahman (Devine knowledge) is ever established in sacrifice (action/service with a sense of sacrifice).

Lesson: Cosmic-cycle revolves with cooperative-action where- in all forces, which are interdependent, sacrifice for each other.

कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षरं परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥१५॥

अध्याय ३: श्लोक १३। समपत्ति का सदुपयोग

Chapter 3: Verse 13

Subject: Use of Wealth

विषय: समपत्ति (धन) का सदुपयोग


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३-१३॥


The righteous who use the residue of yajana (the sacrifice) are liberated from all sins; but the sinful who prepare food (only) for themselves, without sharing with others, verily eat sin.

Lesson: While consuming wealth (material things) share it with others. Do not hoard it.

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं। ॥१३॥