अध्याय २:श्लोक ११-१२।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥११॥

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥१२॥

The Supreme Personality of Godhead said: - While speaking learned words, you are mourning for what is not worthy of grief. Those who are wise lament neither for the living nor for the dead.

Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to be.

श्रीभगवान बोले:- हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनों को कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये है उनके लिये भी पण्डित जन शोक नहीं करते।

न तो ऐसा ही है मैं किसी काल में था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

अध्याय २:श्लोक ९-१०।

सञ्जय उवाच :-


एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥९॥

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥१०॥


Sanjaya said :-

Having spoken thus, Arjuna, chastiser of enemies, told Krishna, “Govinda, I shall not fight,” and fell silent. O descendant of Bharata, at that time Krishna, smiling, in the midst of both the armies, spoke the following words to the grief-stricken Arjuna.


सञ्जय बोले :-

हे राजन! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फ़िर श्री गोविन्द भगवान से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये। हे भरत वंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्री कृष्ण महाराज दोनो सेनाओं के बीच में शोक करते उस अर्जुन को हंसते हुए-से वचन बोले॥९-१०॥

अध्याय २:श्लोक ७-८।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहंशाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥८॥


Now I am confused about my duty and have lost all composure because of miserly weakness. In this condition I am asking You to tell me for certain what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me.

I can find no means to drive away this grief which is drying up my senses. I will not be able to dispel it even if I win a prosperous, unrivaled kingdom on earth with sovereignty like the demigods in heaven.

इसलिये कारयता रूप दोष से उपहत हुए स्वाभाव वाला तथा धर्म के विषय मे मोहित चित्त हुआ मै आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिये आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिये॥७॥

क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओं के आधिपत्य को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नही देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥८॥

होम, यज्ञ, हवन:: २

 

अध्याय २:श्लोक ५-६।

गुरून्हत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्षयमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव, भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्॥५॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम्स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥६॥

It would be better to live in this world by begging than to live at the cost of the lives of great souls who are my teachers. Even though desiring worldly gain, they are superiors. If they are killed, everything we enjoy will be tainted with blood.

Nor do we know which is better—conquering them or being conquered by them. If we killed the sons of Dhritarashtra, we should not care to live. Yet they are now standing before us on the
battlefield.

इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक मे भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक मे रक्त से सने हुये अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूंगा॥५॥

हम यह भी नही जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना- इन दोनों मे से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नही जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नही चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले मे खड़े हैं॥६॥

होम, यज्ञ, हवन:: १

 

अध्याय २:श्लोक ३-४।

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयद्दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥
अर्जुन उवाच:-

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजाहार्वरिसूदन॥४॥

O son of Pritha, do not yield to this degrading impotence. It does not become you. Give up such petty weakness of heart and arise, O chastiser of the enemy.

Arjuna said:
O killer of enemies, O killer of Madhu, how can I counterattack with arrows in battle men like Bhishma and Drona, who are worthy of my worship?

इसलिये हे अर्जुन (पृथ पुत्र) कायरता तुम पर शोभा नही देती, हे परन्तप हृदय की तुच्छ दुर्बलता को छोड़्कर युद्ध के लिये खडा़ हो जा॥३॥

अर्जुन बोले:-

हे मधुसूदन! मैं रण भूमि मे किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लडूंगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥४॥

अध्याय २: श्लोक १-२।

सञ्जय उवाच:-
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥१॥

श्रीभगवानुवाच:-

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥२॥

Sanjaya said:-

Seeing Arjuna full of compassion and very sorrowful, his eyes brimming with tears, Madhusudana, Krsna, spoke the following words.
The Supreme Person said:-

My dear Arjuna, how have these impurities come upon you? They are not at all befitting a man who knows the progressive values of life. They do not lead to higher planets, but to infamy.

सञ्जय बोले:-
उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने ये वचन कहा॥१॥

श्रीभगवान बोले:-

हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥२॥

अध्याय २: साङ्ख्य योग

ॐ श्री परमात्मने नमः

अथ द्वितीयोऽध्यायः

The Eternal reality of Soul's Immortality

आत्मा की अमरता का महा-सत्य

अध्याय १: श्लोक ४६-४७।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥४६॥
सञ्जय उवाच:-
एवमुक्तवार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४७॥

ओ३म् तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे‍ऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।

Even if the sons of Dhritraashtra armed with weapons in hand slay me unarmed and unresisting on the battlefield, that would considered better for me.
Sanjaya said:-
Thus having spoken Arjuna cast aside his bow and arrows in the battlefield and sat down on the seat of the chariot, with mind overwhelmed with deep sorrow.
Thus ends the Shrumadbhagvadgita 'Chapter One' entitled "Vishaad Yoga: Lamenting the Consequences of the War".

यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र, हाथ मे लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण मे मार डालें तो वह मरना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा॥४६॥
सञ्जय बोले:-
रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये॥४७॥
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का श्री कृष्ण-अर्जुन वार्तालाप युक्त विषाद-योग नामक प्रथम अध्याय समाप्त होता है।

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अध्याय १: श्लोक ४४, ४५।

उत्सन्न्कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥४४॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजन्मुद्यताः॥४५॥

O Krishna! maintainer of the people, I have heard by disciplic succession that those who destroy family traditions dwell always in hell. Alas, how strange it is that we are preparing to commit greatly sinful acts. Driven by the desire to enjoy royal happiness, we are intent on killing our own kinsmen.

हे जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं॥४४-४५॥

अध्याय १: श्लोक ४२, ४३।

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिन्डोदकक्रियाः॥४२॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥४३॥

An increase of unwanted population certainly causes hellish life both for the family and for those who destroy the family tradition. The ancestors of such corrupt families fall down, because the performances for offering them food and water are entirely stopped. By the evil deeds of those who destroy the family tradition and thus give rise to unwanted children, all kinds of community projects and family welfare activities are devastated.

वर्णसङ्कर कुलघातियों को और कुल को नरक मे ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वञ्चित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्ण सङ्करकारक दोषों से कुल घातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ॥४२-४३॥

अध्याय १: श्लोक ४०, ४१।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्न्मधर्मोऽभिभव्त्युत॥४०॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुश्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥४१॥

With the destruction of dynasty, the eternal family tradition is vanquished, and thus the rest of the family becomes involved in irreligion. When irreligion is prominent in the family, O Krishna, the women of the family become polluted, and from the degradation of womanhood, O descendant of Vishnu, comes unwanted progeny.

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल मे पाप भी बहुत फ़ैल जाता है। हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियोँ के दूषित हो जाने पर वर्ण सङ्कर उत्पन्न होता है ॥४०-४१॥

अध्याय १: श्लोक ३८, ३९।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभो पहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥३९॥

O Janardana! although these men, their hearts overtaken by greed, see no fault in killing one's family or quarreling with friends, why should we, who can see the crime in destroying a family, engage in these acts of sin?

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रो से विरोध करने मे पाप को नही देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये चिचार क्यों नही करना चाहिये? ॥३८-३९॥

अध्याय १: श्लोक ३६, ३७।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥३६॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥

O lord krishna! in exchange for slaying the sons' of Dhritraastra what happinesss will be derived by us? by killing these aggressors sin will surely come upon us, therefore it is not proper of us to slay the sons' of DhritraaShtra along with our family members; since how by slaying our own's kinsmen will we be happy?

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्न्ता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ॥३६-३७॥

अध्याय १: श्लोक ३४, ३५।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥३४॥

एतान्न् हन्तुमिच्छामि घ्न्तोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥

Fatherly in laws, grandsons, brother in laws and relatives are all present in this battle field ready to give up their kingdoms and very lives. O krishna, even if they want to take my life I dont wish to take their lives. O Krishnaa what to speak for the sake of the earth, even for the rulership of the three worlds, in exchange for slaying the son's of Dhritraashtra, what happiness will be derived by us.

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले, तथा और भी सम्बन्धी लोग हैँ। हे मधुसूदन मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फ़िर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है।

अध्याय १: श्लोक ३२, ३३।

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥३२॥

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥३३॥

O Krishna! what of what value are kingdoms, what value is living for happiness,
if they; for whom our kingdom, material pleasure and happiness is desired.
Preceptors, fatherly elders, sons and grandfatherly elders, maternal uncles,
fathers' in law grandsons, brothers' in law and relatives are all present in this
battle field.

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही।
हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और
जीवन से भी क्या लाभ है? हमें जिनके लिये राज्य, भोग्य और
सुखादि अभीष्ट हैँ, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग
कर युद्ध में खडे़ हैँ ॥३२-३३॥

अध्याय १: श्लोक ३०, ३१।

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥३०॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥३१॥

Gaandiva is slippng from my hands and my skin seems burning, O Krishna! I am unable to keep composed, my mind is unsteady and I see the indications of unauspicious omens. I do not see any good in slaying kinsman in this battle.

हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है; इसलिये मैं खडा़ रहने में भी समर्थ नही हो पा रहा हूँ।हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥३०-३१॥

अध्याय १: श्लोक २८, २९।

अर्जुन उवाच :-
दृष्ट्वेमं स्वजनं कॄषण युयुत्सं समुपस्थिताम्॥२८॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥२९॥


Arjuna said O Krishna, Seeing all these kinsman assembled and ready for battle the limbs of my body are weakening and my mouth is drying up. My whole body is trembling with excitement.

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र मे डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमाञ्च हो रहा है ॥२८-२९॥

अध्याय १: श्लोक २६, २७।

तत्रापश्यत्सिथतान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥२६॥

श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेन्योरूभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥२७॥

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

Thereafter, Arjuna, situated therein could observe could observe in both armies fatherly elders, grand fatherly elders, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grand sons, friends, father in law's and well wishers.

After seeing all his kins present Arjun become overwhelmed with compassion and then stricken by grief spoke...

इसके बाद पृथा पुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं मे स्थित ताऊ-चाचों को दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को पौत्रों को तथा मित्रों को
ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोकाकुल होकर बोले...

अध्याय १: श्लोक २४, २५।

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषिकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥२४॥

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति॥२५॥

Sanjay said O Dhritraashtr, thus being addressed by Arjuna,
Lord Krishna drew up that finest of the`chariots between
both of the armies. In front of Bhishma, Drona and the Kings
of the world and said that, behold Arjuna all the assembled
members of the Kuru dynasty.

संजय बोले : हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनो सेनाओ के बीच मे भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को ख़डा़ कर के इस प्रकार कहा कि हे पार्थ युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देखो॥२४-२५॥

अध्याय १: श्लोक २२, २३।

यावदेतान्निरीक्षे‍ऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥२२॥

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धेप्रियचिकीर्षवः॥२३॥

So that I (Arjun) Can look upon the warriors arrayed for battle with
whom I have to fight in preparation for combat. Also let me see those
warriors who have assembled here in this battle as well wishers of the
evil minded Duryodhana.

और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युध्द के अभिलाषी इन विपक्षी
योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन
के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खडा़ रखिए।दुर्बुद्धि दुर्योधन का
युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं,
इन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा। ॥२२-२३॥

अध्याय १: श्लोक १२, १३।

तस्य सञ्जनयन् हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: ।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥

तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥

Then Bhishma, the valiant grandson of Kuru dynasty roaring like a lion, blew his conch shell very loudly for increasing Duryodhana's cheerness. Thereafter conchshells, bugles, trumpets, kettledrums and cow-horns, suddenly all were sounded simultaneously and that combined sound became tumultuous.

कौरवों में वृद्ध बडे प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया।इसके पश्चात शंख और नगाडे़ तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बडा भयंकर हुआ ॥१२-१३॥