अध्याय २: श्लोक ३९-४०। निष्काम कर्म

Chapter 2: Verse 39-40

Subject: Desire less Action

विषय: निष्काम कर्म

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥२-३९॥

This knowledge I have given to you in the context of samkhya yoga. Now listen to the knowledge related to Nishkam Karma Yoga (Yoga of Desire less Action). Having exposed to this, O Partha, you shall break the bondage-of- action.

Lesson: The desire less action (Nishkam Karma Yoga)   helps in breaking the bondage- of- action.

हे पार्थ! यह बुध्दि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुध्दि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भांति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा। ॥३९॥

***

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२-४०॥

Even a little practice of Nishkam Karma Yoga would liberate you from the fear of birth and death. Neither the initiations made in this regard would be lost, nor would you be blamed for any of their counter-affects.

Lesson: Desire less action liberates a person from fear and the stigma if initiation.

इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोडा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है। ॥४०॥

अध्याय २: श्लोक ३७-३८ । कर्त्तव्य परायणता का वरदान (की उपलब्धि)

Chapter 2: Verse 37-38

Subject: Bliss of Performing Duty

विषय: कर्त्तव्यपरायणता का वरदान

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥२-३७॥


Determined to fight, get up O Kaunteya, if you are slain in the battle you will go to heaven; and if you come out victorious you will enjoy the pleasures of the earth.

Lesson: By performing duty one gets worldly pleasures when alive and the bliss of heaven, if died in the battle (Karma Bhumi).

या तो तू युध्द में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युध्द के लिए निश्चय करके खडा हो जा। ॥३७॥

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Subject: Desire less Action

विषय: कर्म बिना फल की आशा के।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२-३८॥


You will incur no sin when you get yourself ready to fight while treating all pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat alike.
Lesson: Perform your duty without motives of pleasure, victory or gain (desire less action).

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युध्द के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युध्द करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। ॥३८॥

अध्याय २: श्लोक ३५-३६ । कर्त्तव्य विमुखता

Chapter 2: Verse 35-36

Subject: Escape from Duty

विषय: कर्त्तव्य विमुखता।


भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥२-३५॥

Those mighty commanders who give you great respect today, when they meet you (on your escape from the battle field), would think of you as worthless and that you have escaped (from duty) out of fear.

Lesson: Escape from duty damages ones public image and his social repute.

हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? ॥३५॥

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥२-३६॥

Caviling your capability your enemies will speak many unspeakable words about you. What would be more painful than this?
Lesson: Distressing is disreputation and condemnation caused due to escape from duty.

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ॥३६॥

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अध्याय २: श्लोक ३३-३४। कर्त्तव्य विमुखता

Chapter 2: Verse 33-34

Subject: Escape from Duty

विषय: कर्त्तव्य विमुखता


अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥३३॥

(And) if you will not fight this righteous war (righteous duty), you shall incur sin besides having lost your own Dharma duty) and reputation.


Lesson: Escape from duty leads to bad reputation and sinful life.

किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। ॥३३॥

Subject: Disrepute

विषय: अपकीर्ति / कलंकित करना (होना)


अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥३४॥

 

The people too shall discuss your disgrace for ever. Such a disgrace to the honoured one (a man of respect), is worse than death.


Lesson: Disrepute is worse than death.

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढकर है। ॥३४॥

होम-हवन-यज्ञ: १

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अध्याय २: श्लोक ३१-३२ । योद्धा का कर्तव्य

Chapter 2: Verse 31-32

Subject: A Warrior’s Duty

विषय: योद्धा का कर्तव्य।


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥३१॥

Considering it as your own duty you should not feel frightened. There is nothing better for a Kshatriya (Warrior) than a righteous war.


Lesson: One should not escape from his duty. A warrior’s duty is to fight.

अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युध्द से बढकर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है। ॥३१॥

 

Subject: Performing Duty

विषय: कर्तव्य निर्वहन

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥३२॥


O Partha, Only the fortunate get the privilege of such a battle that comes of itself as an open door to heaven.

Lesson: Only fortunate people get the privilege of performing righteous duty.

हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। ॥३२॥

अध्याय २: श्लोक २९-३०। आत्मा की प्रकृति

Chapter 2: Verse 29-30

Subject: Nature of the Soul

विषय: आत्मा की प्रकृति


आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्

आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति

श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२९॥

One perceives the soul as a miracle; and the other hears it as a wonder; and another describes it as a surprise. Yet, having heard about this, none understands what the soul is.

कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता। ॥२९॥

Lesson: Perceive the soul as a reality; not as a miracle.

Subject: The Imperishable

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥३०॥

O Bharat, this soul, which dwells in the body of all beings, is such that it can not be slain. Therefore, it does not behove of you to grieve for all the beings.

हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य (जिसका वध नहीं किया जा सके) है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है। ॥३०॥

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युध्द करने की आवश्यकता का निरूपण)

Lesson: The soul is imperishable and eternal; do not grieve for the perishable beings.

अध्याय २: श्लोक २७-२८ । मृत (मृत्यु) पर शोक

Chapter 2: Verse 27-28

Subject: Grieving for the Dead

विषय: मृत का शोक

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥

(Because) death is inevitable for the born and certain is birth for the dead. You can not do anything in this regard. Therefore, it does not behove of you to grieve for this.

Lesson: It is not good to grieve for the dead as death and rebirth are certain for who ever is born.

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है। ॥२७॥

Subject: Law of Causation

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२८॥

O Bharat, prior to birth and after their death, all   beings are unmanifested (do not have body form). Only during the interim period, they seem to be manifested. Then what is there to concern about?

Lesson: Manifested is the perishable body. Its causes are unmanifested. One should not grieve for the perishable.

हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?। ॥२८॥

अध्याय २: श्लोक २५-२६। आत्मा की विशेषतायें।

Chapter 2: Verse 25-26

Subject: Characteristics of Soul

विषय: आत्मा की विशेषतायें।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२५॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२६॥


This (the soul) is neither the subject of sense organs nor of mind. This is said to be unchangeable. Therefore, (after) understanding its nature you should not grieve.

(And) even if you consider of it as being perpetually born and dying, O Mighty Armed, you should not grieve like this.

Lesson: The soul is beyond the effects of the five primary elements. Do not grieve for the soul, when it departs from the body, as it is unchangeable and beyond the comprehension of the sense organs and the mind

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और इसको विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। ॥२५॥

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है। ॥२६॥

शिक्षा: आत्मा पञ्च-तत्त्वों के प्रभाव से परे है। जब ये शरीर से निकलती है तो इसके लिये शोक न करो ये कभी नही बदलती तथा मस्तिष्क और इन्द्रियों के दायरे मे नही आती।

अध्याय २: श्लोक २३-२४ । आत्मा की विशेषतायें

Chapter 2: Verse 23-24

Subject: Characteristics of the Soul

विषय: आत्मा की विशेषतायें


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२४॥


Neither the weapons can cleave it (the soul), nor can fire burn; water can not drench it, nor can air dry.

This (soul) can not be broken or burnt or dried-up. Soluble indeed, it is everlasting, all pervaiding, and immovable, stable and primeval.

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:संदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अध्याय २: श्लोक २१-२२ । मृत्यु का रहस्य

Chapter 2: Verse 21-22

विषय: मृत्यु का रहस्य

Subject: Mystery of Death

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२१॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही॥२२॥


O Partha, who so ever considers this soul everlasting, eternal, unborn and imperishable, knows who slays whom and (who) causes death to some one.

Just as a man wears new clothes by discarding the worn-out one, similarly the soul gets new bodies after casting away the old one.


Lesson: He who understands the characteristics of the soul knows the mystery of death. The death is like discarding the worn out clothes to get the new one.

हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है? ॥२१॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्तहोता है। ॥२२॥

शिक्षा: जो आत्मा को समझ लेता है वो मृत्यु के रहस्य को जान जाता है, मृत्य, पुराने हो चुके कपड़े को उतार कर नये पहनने जैसी है।

अध्याय २: श्लोक १९-२०

Chapter 2: Verse 19-20

Subject: The Soul

विषय: आत्मा

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥

न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥



One who considers that he is the slayer of this (the Soul), and the other who presumes that it (the Soul) is dead, both are ignorant because none can slay the soul, nor it is slain.

This one (the soul) is neither born, nor does it die at any moment. It does not come into being or cease to exist. It is unborn, eternal, everlasting and primeval. It does not perish when the body is perished.


Lesson: The soul is beyond the limits of time as well as birth and death. It is imperishable. None can slay it, nor is it slain.

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है। ॥१९॥

यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। ॥२०॥

अध्याय २: श्लोक १७-१८

Chapter 2: Verse 17-18

अविनाशि तु तद्विध्दि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥१८॥

But know that by whom this total body is pervaded, is indestructible. No one is able to cause the destructions of this imperishable soul [17].

The embodied soul is eternal in existence, indestructible and infinite only the material body is factually perishable, therefore Fight...O Arjun! [18].

नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। ॥१७॥

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर। ॥१८॥