अध्याय २: श्लोक १५-१६।

Chapter 2: Verse 15-16.

 

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥

 

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि: ॥१६॥

 

O Noblest of Men, that person of judgment equipoised in happiness and distress, who can not be disturbed by these; is certainly eligible for liberation.

In the unreal there is no duration and in the real there is no cesation; indeed the conclusion between both of the two has been analyzed by knowers of the truth.

 

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है।

असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

अध्याय २:श्लोक १३-१४।

Chapter 2: Verse 13-14.

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३॥

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा: ।

गमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥

Just as in 'the physical body of the embodied being' is the process of childhood, youth and the old age; similarly, by the transmigration from one body to another; the wise are never deluded.

O Arjuna! only the interaction of senses and sense objects give cold, heat , pleasure and pain. These things are temporary, appearing and disappearing, therefore try to tolerate them.

जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।

हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।