श्रीमद्भगवद्गीता अब यहाँ पर उपलब्ध है!

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अध्याय १: श्लोक ४४, ४५।

उत्सन्न्कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥४४॥

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजन्मुद्यताः॥४५॥

O Krishna! maintainer of the people, I have heard by disciplic succession that those who destroy family traditions dwell always in hell. Alas, how strange it is that we are preparing to commit greatly sinful acts. Driven by the desire to enjoy royal happiness, we are intent on killing our own kinsmen.

हे जनार्दन! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं॥४४-४५॥

अध्याय १: श्लोक ४२, ४३।

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिन्डोदकक्रियाः॥४२॥

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥४३॥

An increase of unwanted population certainly causes hellish life both for the family and for those who destroy the family tradition. The ancestors of such corrupt families fall down, because the performances for offering them food and water are entirely stopped. By the evil deeds of those who destroy the family tradition and thus give rise to unwanted children, all kinds of community projects and family welfare activities are devastated.

वर्णसङ्कर कुलघातियों को और कुल को नरक मे ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वञ्चित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्ण सङ्करकारक दोषों से कुल घातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ॥४२-४३॥

अध्याय १: श्लोक ४०, ४१।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्न्मधर्मोऽभिभव्त्युत॥४०॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुश्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥४१॥

With the destruction of dynasty, the eternal family tradition is vanquished, and thus the rest of the family becomes involved in irreligion. When irreligion is prominent in the family, O Krishna, the women of the family become polluted, and from the degradation of womanhood, O descendant of Vishnu, comes unwanted progeny.

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल मे पाप भी बहुत फ़ैल जाता है। हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियोँ के दूषित हो जाने पर वर्ण सङ्कर उत्पन्न होता है ॥४०-४१॥

अध्याय १: श्लोक ३८, ३९।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभो पहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥३९॥

O Janardana! although these men, their hearts overtaken by greed, see no fault in killing one's family or quarreling with friends, why should we, who can see the crime in destroying a family, engage in these acts of sin?

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रो से विरोध करने मे पाप को नही देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये चिचार क्यों नही करना चाहिये? ॥३८-३९॥

अध्याय १: श्लोक ३६, ३७।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥३६॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥

O lord krishna! in exchange for slaying the sons' of Dhritraastra what happinesss will be derived by us? by killing these aggressors sin will surely come upon us, therefore it is not proper of us to slay the sons' of DhritraaShtra along with our family members; since how by slaying our own's kinsmen will we be happy?

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्न्ता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ॥३६-३७॥

अध्याय १: श्लोक ३४, ३५।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥३४॥

एतान्न् हन्तुमिच्छामि घ्न्तोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥

Fatherly in laws, grandsons, brother in laws and relatives are all present in this battle field ready to give up their kingdoms and very lives. O krishna, even if they want to take my life I dont wish to take their lives. O Krishnaa what to speak for the sake of the earth, even for the rulership of the three worlds, in exchange for slaying the son's of Dhritraashtra, what happiness will be derived by us.

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले, तथा और भी सम्बन्धी लोग हैँ। हे मधुसूदन मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फ़िर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है।