अध्याय ३: श्लोक ११-१२।

Chapter 3:Verse 11-12

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३-११॥


By this (yajana) you may nourish the gods, and let the gods nourish you. Thus, nourishing one another (performing duty for each other or serving each other) you shall attain to the highest good.

Lesson: Performing action as yajna brings prosperity for all. It is like serving the Supreme alone.

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। ॥११॥


इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३-१२॥


The gods nourished by the sacrifices shall give you (in return) all the desired objects. He who enjoys these objects, given by the gods, without giving anything to them (in return) is indeed a thief.


Lesson: Do not enjoy the benefits (fruits) of actions performed by others without contributing your own share.

यज्ञ द्वारा बढाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। ॥१२॥

अध्याय ३: श्लोक ९-१०। कर्म और यज्ञ (बलिदान)

Chapter 3: Verse 9-10

Subject: Action and Yajna (Sacrifice)

विषय: कर्म और यज्ञ (बलिदान)

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३-९॥

But for action performed as a sacrifice, this world is in bondage to action. Therefore, O Son of Kunti, perform your duty as a sacrifice, free from all attachments.


Lesson: Perform your duty with excellence as if you are performing yjana (sacrifice) without any attachment (desire or longing for results).

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्तव्य कर्म कर। ॥९॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३-१०॥

In the beginning having created the beings together with yajana (the sacrifices=serving for each other), Prajapati (the Creator) said, “By this (yajna) you prosper (multiply by performing sacrificial duty). May this fulfill all your desires”.


Lesson: Perform action in the spirit of Yajna (sacrificial duty) to help each other.

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृध्दि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो। ॥१०॥

अध्याय ३: श्लोक ७-८। श्रेष्ठ पुरुष

Chapter 3: Verse 7-8

Subject: One Who Excels

विषय: श्रेष्ठ पुरुष

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३-७॥

But, the unattached one, who keeps the sense-organs within the control of his mind, engages his motor-organs in the path of action (karma yoga), O Arjuna, he alone excels.


Lesson: Having controlled the sense-organs by your mind, perform action without attachment to results.

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है। ॥७॥

Subject: Obligatory Action

विषय: कर्त्तव्य

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३-८॥

 
Perform your obligations (obligatory duties) because action is superior to inaction. Even the maintenance of your (physical) body would not be possible without action.

Lesson: Action is essential. It is superior to inaction. Even to maintain his physical body, one has to perform some sort of action.

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिध्द होगा। ॥८॥

अध्याय ३ श्लोक ५-६। गर्व-दम्भ

Chapter 3: Verse 5-6

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३-५॥

 
Because, even for a moment, none remains without performing action. Indeed, all are made to work helplessly by the qualities born of nature.

नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा पर वश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। ॥५॥

Subject: The Hypocrite

विषय: दम्भी-घमन्डी

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३-६॥

 

One who forcefully restraints the organs-of-action, but whose mind continues to brood over the sense-objects, is of deluded mind; and he is called a hypocrite.

Lesson: His mind is deluded and he is a hypocrite who is attached to sense-objects, having forcefully controlled organs-of-action.

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है। ॥६॥

अध्याय ३: श्लोक ३-४; कर्म अपरिहार्य है।

Chapter 3: Verse 3-4

श्रीभगवानुवाच।
 Lord Krishna said:

Subject: The Two-fold Path

विषय: द्विस्तरीय मार्ग 


लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३-३॥

 
O Sinless One, as I have already told you earlier, there is a two-fold path; the path of knowledge for the samkhyas (the men of realization) and the path of action for the yogis (the men of action).

Lesson: Knowledge and action are complementary to each other. Steadfastness in knowledge is suitable for being practiced through a process of action (karma yoga).

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग है, इसी को 'संन्यास, 'सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुध्दि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग है, इसी को 'समत्वयोग, 'बुध्दियोग, 'कर्मयोग, 'तदर्थकर्म, 'मदर्थकर्म, 'मत्कर्म आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥३॥

Subject: Action is Unavoidable

विषय: कर्म अपरिहार्य है।


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३-४॥

One does not become Action- less (free from the bondage of action) merely by absconding from action. Also, none attains` Perfection` by renunciations of action.

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। ॥४॥

तृतीय अध्याय: कर्म योग- श्लोक १-२

Third Chapter: 'Eternal duties of human beings' Verse 1-2

ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण

*******

अर्जुन उवाच।
Arjuna said:

Subject: Confusion and Curiosity

विषय: भ्रम एवं जिज्ञासा

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३-१॥
 
O Janardana, if the path of steady intellect (transcendental wisdom) is superior to (desire less) action, why then O Kesava, you urge me to engage in this horrible action (war).

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ॥१॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३-२॥
 
Your equivocal words appear to confuse me. Tell me decisively, the one by which I may attain the highest good (the Supreme)
Lesson: Delusion creates confusion and a confused person fails to distinguish between right or wrong. Also, he is ever curious to know about the reality (the truth).

आप अपने इस प्रकार के वचनों से मेरी बुध्दि को सम्मोहित सा कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊं ॥२॥

अध्याय २: श्लोक ७२ । ब्रह्म ज्ञान

Chapter 2: Verse 72

Subject: Knowledge of Absolute

विषय: परम ज्ञान


एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२-७२॥
 
O Partha! this is the state of being established in Brahman (when one has realized the Supreme).On attaining this state none is deluded. If he continues to live in this state till his last breath, he attains oneness with the Absolute.

Lesson: Knowing the Absolute is the real knowledge.

हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। ॥७२॥

 

*******

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्याय: ॥२॥

Here ends the second chapter of Bhagvadgita named Sankhya Yoga i.e. The Eternal Reality of Souls's Immortality

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का ब्रह्मविद्या-योगशास्त्र सम्बन्धित श्रीकृष्ण अर्जुन संवादयुक्त साङ्ख्य योग नामक द्वितीय अध्याय समाप्त होता है।

अध्याय २: श्लोक ७०-७१ । वास्तविक शान्ति

Chapter 2: Verse 70-71

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२-७०॥

That person of steady intellect remains stable and passionless when desires enter in to his mind as the water of countless rivers flows into the brimmed ocean without causing it any vacillation. And this great person attains highest peace; not the one that has desires to fulfill desires.

Lesson: The man of steady intellect, who remains unaffected by desires, attains highest peace.

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले समुद्र में उसको विचलितन करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसीप्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं। ॥७०॥

Subject: Real Peace

विषय: वास्तविक शान्ति

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥२-७१॥

 
One who abandons all desires and who is devoid of longing, ego and a desire attains peace.

Lesson: Renunciation of ego-centric misconception leads to real peace.

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है। ॥७१॥

अध्याय २: श्लोक ६८-६९। स्थिर चित्त एवं स्थित प्रज्ञ योगी

Chapter 2: Verse 68-69

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-६८॥

 
Therefore, O mighty armed (Arjuna) steady is the intellect of a person whose sense-organs, being withdrawn from their respective sense-object, are completely under complete control.
Lesson: It is essential for a steady intellect to exercise control on sense-organs, having withdrawn from their respective object.

इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुध्दि स्थिर है। ॥६८॥

Subject: Metaphysician

विषय: स्थितप्रज्ञ योगी

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२-६९॥
 
This Self-controlled  person , who has realized the everlasting pure element of Self, keeps awake when it is night for other beings. When other persons remain wakeful for transient and perishable worldly pleasures, this sage has night to perceive the eternal truth (the Reality).

Lesson: One who is deep rooted in the material world is ignorant to the world of perception intensely enjoyed and lived by a metaphysician of steady intellect.

सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जाननेवाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। ॥६९॥

अध्याय २: श्लोक ६६-६७ । प्रसन्न पुरुष एवं इन्द्रिय नियन्त्रण

Chapter 2: Verse 66-67

Subject: Contented Person

विषय: प्रसन्न पुरुष

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥२-६६।
 
He neither has good intellect nor any sense of theism who does not contemplate with the Supreme. Such a man of atheistic nature does not have peace. How can there be peace to the peace less?
Lesson: By contemplating with the Supreme with a sense of theism, one can attain inner tranquility and contentment.

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुध्दि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ॥६६॥

Subject: Unbridled Sense –Organs

विषय: अनियन्त्रित इन्द्रियाँ

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥२-६७॥
 
As a boat floating on the water is carried away by stormy wind, the mind of a person (not contemplated with the Supreme) is taken away by a single sense –organ( to which he is deeply attached) from amongst the wavering and undisciplined sense-organs.
Lesson: It is not good to leave the sense-organs unrestrained for a purposeful life and enduring success.

क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुध्दि को हर लेती है। ॥६७॥

अध्याय २: श्लोक ६४-६५।अन्त:करण की प्रसन्नता

Chapter 2: Verse 64-65

Subject: inner tranquility

विषय: अन्त:करण की प्रसन्नता


रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥२-६४॥


प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥२-६५॥
 

But, he attains inner tranquility, even if he enjoys sensory pleasures, whose heart is independent; who neither has any attraction nor aversion; and whose sense-objects are under complete control.  All his sorrows are destroyed in that tranquility and the intellect of such a tranquil-minded person soon becomes completely steady.


Lesson: A person may have steady intellect and inner tranquility even if he enjoys sensory pleasures provided his sense objects are under complete control and whose heart is independent.

परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। ॥६४॥

अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुध्दि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है। ॥६५॥

अध्याय २: श्लोक ६३। क्रोध

Chapter 2: Verse 63

Subject: Anger

विषय: क्रोध

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥२-६३॥

 
From anger arises ignorance, from ignorance there is delusion and loss of memory .These together destroy intellect. With the destruction of intellect, the person is totally degraded.

Lesson: Attachment to sensory –objects creates a cycle of evil passions which results in the degradation of ones personality. The person loses his goal and he deviates from his chosen path.

क्रोध से अत्यन्त मूढ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुध्दि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुध्दि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है। ॥६३॥

अध्याय २: श्लोक ६१-६२। स्थिर चित्त एवं आसक्ति

Chapter 2: Verse 61-62

Subject: Steady Intellect

विषय: स्थिर चित्त

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-६१॥

 
His intellect is steady who while controlling them all (sense-organs) remains concentrated on Me as the Supreme by completely  overcoming his senses.
Lesson: One who concentrates on the Supreme, having controlled his senses, have  steady intellect.

इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं, उसी की बुध्दि स्थिर हो जाती है॥६१॥

Subject: Affect of Sensory Attachment

विषय: आसक्ति के प्रभाव

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥२-६२॥
 
One who dwells on sense- objects, gets attached to sensory attachment. From attachment, desires are born and anger arises when there are impediments in the fulfillment of desires.

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पन्न होता है। ॥६२॥

अध्याय २: श्लोक ५९-६० परम की अनुभूति एवं इन्द्रियों की आसक्ति।

Chapter 2: Verse 59-60

Subject: Realisation of the Absolute

विषय: परम की अनुभूति

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२-५९॥

 
One who abstains from the attachment of senses
may be detached from sensual pleasures but his carving for sensual enjoyment remains alive. It is only on the realization of the Supreme Being (the Absolute) that his longing leaves him.

Lesson: Only on realization of the Supreme Reality (The Absolute) one is detached from carving for sensual pleasures.

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। ॥५९॥

Subject: Turbulent Senses

विषय: आसक्त इन्द्रियाँ

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२-६०॥

 
The turbulent senses, O Kauntya (Son of Kunti) do violently carry away the mind of a wise person even while he is striving (to control them).

Lesson: It is not easy to detach ones mind from turbulent sense-organs and their objects. Even the mind of wise persons is taken away violently by sensual pleasures /attractions.

हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां यन्त्र करते हुए बुध्दिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं। ॥६०॥

अध्याय २: श्लोक ५७-५८ । श्रीभगवानुवाच

Chapter 2: Verse 57-58

श्रीभगवानुवाच।

Lord Krishna said:

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-५७॥

 
A person of steady intellect is he who is unattached every where and who neither rejoices nor hates on getting anything good or bad when he comes across it.

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ वह उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुध्दि स्थिर है। ॥५७॥


यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेऽभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२-५८॥

 
His intellect is stabilized when he completely withdraws his senses from the sense-objects like a tortoise who withdraws its limbs from all sides.


Lesson: He is as a man of steady intellect whose intellect is not contaminated due to endless desires; who is self contented in the Self; totally liberated from attachment of gains or losses and whose senses are completely withdrawn from the sense-objects.

और जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुध्दि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)। ॥५८॥

अध्याय २: श्लोक ५५-५६। स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण

Chapter 2: Verse 55-56

श्रीभगवानुवाच।
Lord Krishna said:

Subject: Characteristics of the Steady Intellect

विषय: स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महत्ता


प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२-५५॥

O Partha, a person is said to be of steady intellect who has completely abandoned all the desires of the mind and who remains satisfied in the Self alone by the Self.

श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। ॥५५॥


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२-५६॥


He is called an enlightened sage of steady intellect who remains unperplexed in the moments of sorrow, who does not crave for any desire while in comfort and who is completely liberated from attachment, fear and anger.

 

दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुध्दि कहा जाता है। ॥५६॥

अध्याय २: श्लोक ५३-५४ । आत्मानुभूति एवं जिज्ञासा

Chapter 2: Verse 53-54

Subject: Self-realization

विषय: आत्मानुभूति

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२-५३॥


You shall attain self-realisation when your intellect which is wavering due to different doctrines and principles that you have heard ,shall stand  stabilized and steady in the Self.
Lesson: Self-realisation is attained on having the intellect steadily stabilized in the Self.

भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुध्दि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा। ॥५३॥

 

Subject: Curiosity

विषय: जिज्ञासा

Arjuna said:

अर्जुन उवाच।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२-५४॥


O Keshava, what are the characteristics of a person of steady intellect who is Self-absorbed? How does the person of steady intellect speak; how does he sit; and how does he walk (behave)?
Lesson: Curiosity rises in the pursuit of knowledge.

( स्थिरबुध्दि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )

अर्जुन उवाच:

अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुध्दि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुध्दि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥

अध्याय २: श्लोक ५१-५२। वैराग्य

Chapter 2: Verse 51-52

Subject: Detachment

विषय: वैराग्य

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥२-५१॥

Endowed with evenness of mind the wise, having renounced the fruits of actions, is librated from the bondage of birth. He (thus) attains the Supreme position (state of enlightenment) which is beyond all evils.
Lesson: Abandon the fruits of your action to get liberation from the bondage of birth and attain the evil less supreme position.

क्योंकि समबुध्दि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं। ॥५१॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२-५२॥


When your intellect crosses the swamp of delusion, you become indifferent as to what has been heard and what is yet to be heard.
Lesson: Detachment from the material world (world of senses) is experienced when ones intellect sheds off his delusions.

जिस काल में तेरी बुध्दि मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा। ॥५२॥

अध्याय २: श्लोक ५०

Chapter 2: Verse 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२-५०॥

A person with evenness of mind is not attached to the fruits of good or bad deeds. He casts off the virtue and sin in this world alone. Therefore, devote yourself to (karma) yoga (with evenness of mind/equanimity). Performing duty with efficiency is yoga.
Lesson: By performing duty with evenness of mind a person accomplishes his job with greater efficiency and skill.

समबुध्दियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है। ॥५०॥

अध्याय २: श्लोक ४८-४९ 'योग'

Chapter 2: Verse 48-49

Subject: Yoga

विषय: योग

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२-४८॥


Leaving the attachment of success and failure, O Dhananjaya, be established in yoga. Equipoise in yoga (yoga of evenness/equanimity of mind) perform your duty. This evenness of mind is known as yoga. (Viewing gain and loss, victory and defeat in equanimity is known as evenness of mind).

Lesson: Persons established in yoga view gain and loss, victory and defeat with evenness of mind (In equanimity).

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिध्दि और असिध्दि में समान बुध्दिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व है।) ही योग कहलाता है। ॥४८॥

Subject: Importance of the Evenness of Mind

विषय: समत्व रूप बुद्धि का महत्त्व

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥२-४९॥


Action (work done with motives/desires for fruits-of) indeed is inferior to yoga of wisdom (evenness of mind). Miserable are those who desire fruits for their action. Therefore, O Dhananjaya, seek your refuge in the yoga of equanimity with devotion.
Lesson: Action performed with evenness of mind is better than desire- full- action.

इस समत्वरूप बुध्दियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुध्दि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ अर्थात् बुध्दियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं। ॥४९॥

अध्याय २: श्लोक ४६-४७। कर्मण्येवाधिकारस्ते

Chapter 2: Verse 46-47

Subject: Man of Absolute Knowledge

विषय: ज्ञान की ओर

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥२-४६॥


The man of absolute knowledge who has realized the Supreme Self (the Brahman) successfully achieves the entire purpose of life which is described in the Vedas (scriptures). He does not need any thing more, as petty wells are not required when big reservoirs are found.
Lesson: The man of absolute knowledge is not influenced by the ostentatious knowledge (rituals or outward practices) described in Vedas (scriptures).

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ॥४६॥

Subject: Right to Perform Duty

विषय: कर्म का ही अधिकार

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२-४७॥


Your right is only to perform your duty, but never to its results (fruits). Let not the results be your motive, nor you be indolent.
Lesson: Perform your duty with a mind free from the anxieties of fruits of action. Neither you be indolent nor consider yourself as the cause ( agent) of results.

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। ॥४७॥

अध्याय २: श्लोक ४४-४५। अस्थिर मन और मूलभूत गुण

Chapter 2: Verse 44-45

 

Subject: Instable Mind

विषय: अस्थिर चित्त


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२-४४॥


Those persons are devoid of stable intellect and firm determination (single-pointed conviction) who are more attached to carnal pleasures and worldly prosperity and who remain obsessed by such things.


Lesson: Persons attached to carnal pleasures and who remain obsessed by worldly things have instable mind.

उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुध्दि नहीं होती। ॥४४॥

 

Subject: Constituent Qualities

विषय: मौलिक गुण


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२-४५॥


The Vedas (scriptures) deal with three constituent qualities (natural attributes like Sat, Raj, Tama found in all substances). Rise above these three qualities O Arjuna, be free from the conflict (duality) of pleasures and pains, gains and protection; ever poised in the quality of Sattva without (any desire for) acquisition and preservation (yogakshema) and be possessed of the Self.

Lesson: Three constituent qualities are found in all substances (satva, rajas, tamas). Possessed of the Self, one should ever be poised in the quality of sattva (purity) without any desire of acquisition, accumulation and preservation/protection of worldly possessions.

हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग है।) क्षेम को (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम है।) न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो। ॥४५॥

  चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अध्याय २: श्लोक ४२-४३। अविवेकी (मूर्ख)

Chapter 2 Verse: 42-43

Subject: The Unwise

विषय: अविवेकी (मूर्ख)


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२-४२॥

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२-४३॥

Only those unwise people are attached to the ostentatious knowledge of Vedas (scriptures) which promise heaven and good rebirth, as the reward of their actions. For the satisfaction of their sense-organs and with the desire to lead a life of material grandeur, they think that the best is heaven and nothing is better than it. Quoting instances from scriptures with their own ostentatious meaning, only the unwise plead for desire full action.

हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुध्दि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढकर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिसपुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है ॥४२-४३॥

अध्याय २: श्लोक ४१। निष्काम कर्म फल

Chapter 2: Verse 41

Subject: Desire less Action Affects

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥२-४१॥

O Kurunandana (son of Kuru dynasty), those who proceed on this path of Nishkam Karma Yoga, have resolute determination (single-pointed conviction or steady intellect), while the mind of those unwise remains fragmented in endless irresolute thoughts whose actions are guided by desires (motives).


Lesson: Desire less action promotes steady intellect and firm determination.

हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुध्दि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुध्दियां निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं। ॥४१॥

शिक्षा: 'निष्काम कर्म', 'स्थिर-बुद्धि' और 'दृढ़-निश्चय' को प्रेरित करता है।