अध्याय २: श्लोक ५९-६० परम की अनुभूति एवं इन्द्रियों की आसक्ति।

Chapter 2: Verse 59-60

Subject: Realisation of the Absolute

विषय: परम की अनुभूति

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२-५९॥

 
One who abstains from the attachment of senses
may be detached from sensual pleasures but his carving for sensual enjoyment remains alive. It is only on the realization of the Supreme Being (the Absolute) that his longing leaves him.

Lesson: Only on realization of the Supreme Reality (The Absolute) one is detached from carving for sensual pleasures.

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। ॥५९॥

Subject: Turbulent Senses

विषय: आसक्त इन्द्रियाँ

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥२-६०॥

 
The turbulent senses, O Kauntya (Son of Kunti) do violently carry away the mind of a wise person even while he is striving (to control them).

Lesson: It is not easy to detach ones mind from turbulent sense-organs and their objects. Even the mind of wise persons is taken away violently by sensual pleasures /attractions.

हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां यन्त्र करते हुए बुध्दिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं। ॥६०॥

1 comment:

Pramendra Pratap Singh said...

बहुत ही अच्‍छा श्‍लोक है। और उससे भी अच्‍छा अर्थ

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