अध्याय २:श्लोक ५-६।

गुरून्हत्वा हि महानुभावाञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्षयमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव, भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्॥५॥

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम्स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥६॥

It would be better to live in this world by begging than to live at the cost of the lives of great souls who are my teachers. Even though desiring worldly gain, they are superiors. If they are killed, everything we enjoy will be tainted with blood.

Nor do we know which is better—conquering them or being conquered by them. If we killed the sons of Dhritarashtra, we should not care to live. Yet they are now standing before us on the
battlefield.

इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक मे भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक मे रक्त से सने हुये अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूंगा॥५॥

हम यह भी नही जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना- इन दोनों मे से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नही जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नही चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले मे खड़े हैं॥६॥

No comments:

Post a Comment