अध्याय २:श्लोक ७-८।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहंशाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥८॥


Now I am confused about my duty and have lost all composure because of miserly weakness. In this condition I am asking You to tell me for certain what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me.

I can find no means to drive away this grief which is drying up my senses. I will not be able to dispel it even if I win a prosperous, unrivaled kingdom on earth with sovereignty like the demigods in heaven.

इसलिये कारयता रूप दोष से उपहत हुए स्वाभाव वाला तथा धर्म के विषय मे मोहित चित्त हुआ मै आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिये आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिये॥७॥

क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओं के आधिपत्य को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नही देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥८॥

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