अध्याय १: श्लोक ३८, ३९।

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभो पहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥३९॥

O Janardana! although these men, their hearts overtaken by greed, see no fault in killing one's family or quarreling with friends, why should we, who can see the crime in destroying a family, engage in these acts of sin?

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रो से विरोध करने मे पाप को नही देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये चिचार क्यों नही करना चाहिये? ॥३८-३९॥

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