अध्याय १: श्लोक ३६, ३७।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥३६॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥

O lord krishna! in exchange for slaying the sons' of Dhritraastra what happinesss will be derived by us? by killing these aggressors sin will surely come upon us, therefore it is not proper of us to slay the sons' of DhritraaShtra along with our family members; since how by slaying our own's kinsmen will we be happy?

हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्न्ता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ॥३६-३७॥

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