Chapter 2: Verse 13-14.
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा: ।
गमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥
Just as in 'the physical body of the embodied being' is the process of childhood, youth and the old age; similarly, by the transmigration from one body to another; the wise are never deluded.
O Arjuna! only the interaction of senses and sense objects give cold, heat , pleasure and pain. These things are temporary, appearing and disappearing, therefore try to tolerate them.
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर।
3 comments:
बधाई हो मिश्र जी आपने दोबारा यह शुभ कार्य आरंभ कर दिया। एक बार मुझे लगा था कि शायद अब आपकी इसमें समयाभाव से रुचि नहीं रही।
गीता तो खैर संसार की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से है ही, इसके अलावा भी कई पवित्र और श्रेष्ठ पुस्तकें हैं जिन्हें नैट पर हिन्दी में उपलब्ध करवाने का प्रयास होना चाहिए।
श्रीश जी,
धन्यवाद!
I enjoyed readding this
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