अध्याय १: श्लोक ३०, ३१।

गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥३०॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥३१॥

Gaandiva is slippng from my hands and my skin seems burning, O Krishna! I am unable to keep composed, my mind is unsteady and I see the indications of unauspicious omens. I do not see any good in slaying kinsman in this battle.

हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है; इसलिये मैं खडा़ रहने में भी समर्थ नही हो पा रहा हूँ।हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥३०-३१॥

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