अध्याय ३: श्लोक ३६-३७ पाप का स्रोत

Chapter 3 Verse: 36-37

अर्जुन उवाच
Arjuna said

Subject: Source of Sin

विषय: पाप का स्रोत

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३६॥

But, what impels a man, O Varshneya, to commit sin, even reluctantly, as if being compelled to do per force.
Lesson: Try to know what impels a man to commit a sin when he is engaged in action, doing work according to his constituent qualities (temperament)

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। ॥३६॥

श्रीभगवानुवाच।
Lord Krishna said:

Subject: Role of Desire and Anger

विषय: आकांक्षा (इच्छा) और क्रोध का योगदान

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३७॥

 
This desire, this anger; born of rajas (passion, one of the constituent qualities) is a great devourer, a great sinner. This alone be known as the enemy here (in this world).

Lesson: Desire and anger are the source of sin. These should be considered as the greatest enemies.

श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बडा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान। ॥३७॥

अध्याय ३: श्लोक ३४-३५ राग, द्वेष और कर्त्तव्य

Chapter 3: Verse 34-35

Subject: Attachment and Aversion

विषय: राग और द्वेष


इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३-३४॥


Attachments and aversions for sense-objects dwell in the senses. None should come under their sway for these are two major stumbling blocks on the path of Self-realization.

Lesson: Perform your duty without being influenced by attachments and aversions for sense-objects which create obstacles in the process of Self-realization.

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं। ॥३४॥

Subject: Obligatory Work (Duty)

विषय: कर्त्तव्य

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३-३५॥

It is better to perform ones own duty. Own duty (svadharmah), how- so- ever deficiently performed, is superior to the well-accomplished duty of some one else   (prescribed for some one else). Better is death in   one’s own duty, as there always remains fear while performing the duty of some one else.


Lesson: For liberation from fear, perform your own obligatory duty rather than attending to the jobs prescribed for some one else.

अच्छी तरह से आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है। ॥३५॥

अध्याय ३: श्लोक ३२-३३ स्वभाव-प्रकृति एवं कर्म

Chapter 3: Verse 32-33

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३-३२॥


You consider all these foolish persons as doomed who are deluded about all sort of knowledge (rituals, outward practices or worldly knowledge).Carp at My this thought (teaching) and do not practice it (desire less actions).

Lesson: Doomed are those who do not practice desire less actions.

परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ। ॥३२॥

Subject: Temperament and Action

विषय: स्वभाव-प्रकृति एवं कर्म

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३-३३॥

 
While performing action, all creatures follow their nature/temperament (nature acquired from constituent qualities). The wise also act in accordance with their nature (although they are beyond hate and aversion). What repression / repressions and restraints can do?

Lesson: People act according to their nature (Constituent qualities).None can change its course. Even repressions and restraints fail to help.

सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा। ॥३३॥